

2025 का बजट सत्र भारतीय संसद का एक असाधारण अध्याय रहा। जहां एक ओर देर रात तक विधायी कामकाज चला, वहीं दूसरी ओर बहसों ने यह साफ कर दिया कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था कितनी खंडित हो चुकी है। भले ही सत्तारूढ़ भाजपा ने इसे ‘उत्पादक सत्र’ बताया हो, लेकिन असल में यह दिखाता है कि भारत की संसद से मध्य मार्ग पूरी तरह गायब हो चुका है। कभी भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ रहे द्विदलीय सहयोग की अब संसद में कोई जगह नहीं रह गई है।
इस सत्र की सबसे प्रमुख घटना रही — वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक 2025। यह कानून भले ही लंबी बहस के बाद पास हो गया, लेकिन इसके पीछे की कहानी सिर्फ वैचारिक मतभेद की नहीं, बल्कि गंभीर सामाजिक और राजनीतिक विभाजन की है।
यह बात चौंकाने वाली है कि इस विधेयक का समर्थन कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं कर पाया, सिवाय राज्यसभा के एक मनोनीत सदस्य के। जिस समुदाय पर यह कानून सीधे असर डालता है, उस समुदाय को विश्वास में लिए बिना विधेयक पारित करना केवल खराब नीति नहीं, बल्कि यह बहुसंख्यकवाद की पराकाष्ठा है।
इस बार विपक्ष अपेक्षाकृत एकजुट नजर आया। उन्होंने मुद्दों पर एक राय रखी, और कई बार fence-sitters को भी अपनी ओर खींच लिया। लेकिन भाजपा ने फिर भी विधायी नियंत्रण अपने हाथ में रखा।
बड़ी बात ये रही कि बीजेडी (BJD) जैसे सहयोगी दलों में भी मतभेद खुलकर सामने आए। पार्टी द्वारा वक़्फ़ विधेयक पर व्हिप जारी न करना, बीजेडी के भीतर आक्रोश का कारण बना, खासतौर पर तब जब नेता नवीन पटनायक खुद इस विधेयक के खिलाफ थे। वहीं AIADMK ने विधेयक के खिलाफ वोट देकर यह साफ कर दिया कि वह भाजपा की नीतियों से सहज नहीं है। यही डर 2023 में दोनों दलों के अलगाव की वजह भी बना था—अल्पसंख्यक वोटबैंक खोने का डर।
वहीं दूसरी ओर, जेडीयू और टीडीपी ने भाजपा से बिना सवाल किए अपनी नजदीकियां और बढ़ा दीं। लेकिन ऐसी निकटता का दीर्घकालिक नुकसान लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भुगतना पड़ सकता है।
सत्र के दौरान मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने पर भी आधी रात को बहस हुई। भले ही यह प्रस्ताव पारित हो गया, लेकिन सहमति की कमी और संघीय संवाद के अभाव ने सरकार की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए।
अगर पारंपरिक मानकों पर देखें तो सत्र उत्पादक रहा—कानून पारित हुए, बहसें हुईं, कार्यवाही देर तक चली। लेकिन लोकतंत्र का मतलब सिर्फ कानून पास करना नहीं है; इसका मतलब है सभी को साथ लेकर चलना। जब किसी कानून पर उस समुदाय को ही भरोसे में नहीं लिया गया जिसे वो प्रभावित करता है, तो ये विश्वास की कमी का गंभीर संकेत है।
इतना ही नहीं, राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ का समिति बैठक से वॉकआउट और राहुल गांधी को बोलने का पर्याप्त मौका न मिलने पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के साथ तनाव—यह सब दिखाता है कि संसदीय गरिमा भी संकट में है।
लोकतंत्र तभी फलता-फूलता है जब संवाद, समझौते और सहयोग की गुंजाइश बनी रहे — और वही "मध्य मार्ग" अब संसद से गायब हो रहा है। संसद अब सेतु बनाने की जगह सिर्फ संघर्ष का मैदान बनती जा रही है। यह सत्र ऐसा अवसर हो सकता था जहाँ सरकार और विपक्ष साझा दृष्टिकोण पर पहुंचते। लेकिन इसका नतीजा रहा और भी तीव्र ध्रुवीकरण।
2025 का बजट सत्र सिर्फ विधेयकों या देर रात की कार्यवाहियों के लिए याद नहीं किया जाएगा। यह सत्र दर्शाता है कि भारतीय राजनीति अब प्रदर्शन की राजनीति बनती जा रही है, जहाँ बहस सिर्फ टीवी फुटेज के लिए होती है, और कानून सिर्फ वोटबैंक साधने के लिए। जब अहम समुदाय खुद को निर्णय प्रक्रिया से बाहर पाता है, और सहयोगी दलों में फूट दिखती है, तो यह संकेत है कि लोकतंत्र के बुनियादी स्तंभों की मरम्मत की जरूरत है।
अगर संसद लोकतंत्र का मंदिर है, तो "मध्य मार्ग" उसकी खाली पड़ी आत्मा बन चुका है। और बिना उस आत्मा के, यह मंदिर सिर्फ एक युद्धभूमि बनकर रह जाएगा।
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