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संसद में गायब होता मध्य मार्ग: बजट सत्र 2025 ने दिखाया द्विदलीय सहमति का अभाव

10-04-2025

परिचय: विरोधाभासों और परिणामों से भरा सत्र
 

बजट सत्र 2025 ने एक गहरा विरोधाभास प्रस्तुत किया। ऊपर से देखा जाए तो सत्तारूढ़ दल ने कार्यक्षमता का शानदार प्रदर्शन किया—आधी रात तक बहसें, विवादास्पद विधेयकों की स्वीकृति, और दोनों सदनों के अध्यक्षों द्वारा प्रशंसा। लेकिन सतह के नीचे छिपा था एक और बड़ा संकट: द्विदलीय सहमति का लगभग पूर्ण अभाव और राजनीतिक व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तेज होती लकीरें।

सत्र में ऐतिहासिक तेज़ी और कठोर बहसें तो थीं, लेकिन गायब था वह सबसे ज़रूरी तत्व—मध्य मार्ग। यानी वह स्थान जहां संवाद, समझौता और साझा दृष्टिकोण का वजूद होता था।
 



विधायी उपलब्धियों की गहराई से समीक्षा
 

🔹 वक्फ (संशोधन) विधेयक 2025: एक आधी रात की बहस से कहीं ज़्यादा

वक्फ विधेयक ने जितनी सुर्खियाँ बटोरीं, उतनी ही संसद का समय भी लिया। आधी रात तक बहस चली, और इसे पारित करना सत्तारूढ़ भाजपा की जीत मानी गई। लेकिन इसके चारों ओर का माहौल गहराते राजनीतिक दरारों को उजागर करता है:

  • विपक्षी दलों, जैसे AIADMK और BJD ने या तो इसका विरोध किया या असहजता जताई।

  • आमतौर पर तटस्थ रहने वाली BJD ने व्हिप जारी नहीं किया, जिससे पार्टी में अंदरूनी असंतोष उभरा—खासतौर पर तब, जब नवीन पटनायक स्वयं इसके खिलाफ पहले से स्पष्ट राय रख चुके थे।

  • AIADMK का विरोध इस विधेयक से भाजपा की छवि से दूरी बनाए रखने की रणनीति दर्शाता है, ताकि उसका अल्पसंख्यक वोट आधार सुरक्षित रहे।

कोई भी मुस्लिम सांसद, सिवाय एक नामित राज्यसभा सदस्य के, विधेयक के समर्थन में नहीं आया। यह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं—बल्कि बहुसंख्यकवादी राजनीति की ओर बढ़ते कदम का स्पष्ट संकेत है, जहां प्रभावित समुदाय को पूरी तरह से निर्णय प्रक्रिया से बाहर रखा गया।
 



विपक्ष की अप्रत्याशित जीतें: प्रतीकात्मक लेकिन अहम
 

हालांकि सत्र पर भाजपा का वर्चस्व रहा, फिर भी विपक्ष ने कुछ मामलों में मजबूती दिखाई:

  • कई अहम मुद्दों पर उसने मजबूती से अपनी बात रखी।

  • कुछ तटस्थ सांसदों का समर्थन भी हासिल किया।

  • सहयोगी दलों के बीच अस्थायी एकता देखने को मिली।

यह विशेष रूप से मणिपुर में राष्ट्रपति शासन पर हुई लंबी बहस में दिखा, जो आधी रात तक चली। इसने कार्यप्रणाली की गंभीरता और राज्य में जारी संकट को दोनों को रेखांकित किया।
 



परदे के पीछे की घटनाएँ: सत्ता संघर्ष और मर्यादा का उल्लंघन
 

कैमरे से दूर के क्षण भी बहुत कुछ कह गए। दोनों सदनों की बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठकों में तीखे विवाद हुए। एक मामले में तो राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ बैठक से बाहर निकल गए—एक ऐसा कदम जो अंदरूनी टकराव की गंभीरता दर्शाता है।

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को पर्याप्त बोलने का मौका न दिए जाने को लेकर कांग्रेस और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के बीच तनातनी भी सत्र की प्रमुख घटनाओं में रही।
 



सत्र ने क्या स्पष्ट किया
 

  1. मध्य मार्ग गायब है:
    विचारधाराओं का संतुलन टूटता जा रहा है। अब कोई भी पक्ष समझौते के लिए तैयार नहीं, और हर मुद्दा पक्ष-विपक्ष की लड़ाई बनता जा रहा है।

  2. मित्र या प्रतिद्वंद्वी?:
    AIADMK और BJD जैसे सहयोगी दलों के साथ भाजपा के रिश्ते तनावपूर्ण हैं, वहीं TDP और JD(U) जैसे दल नजदीक आते दिखे। यह सब आगामी 2026 चुनावों के संदर्भ में अहम है।

  3. बहुसंख्यकवाद की छाया:
    वक्फ विधेयक की बहस ने बहिष्करण की राजनीति को उजागर किया—जहां संबंधित समुदाय की आवाज़ पूरी तरह से नदारद रही।

  4. लोकतंत्र एक चौराहे पर:
    यह सत्र सामूहिक दृष्टिकोण के बजाय राजनीतिक एजेंडा के इर्द-गिर्द घूमता रहा। संसद अब विचार-विमर्श का मंच नहीं, रणभूमि बनती जा रही है।
     



क्यों है यह गंभीर: विमर्शात्मक लोकतंत्र का क्षय
 

किसी भी परिपक्व लोकतंत्र में, संसद वह स्थान होती है जहां विचारों की परीक्षा होती है, न कि उनका गला घोंटा जाता है। बजट सत्र 2025 ने दिखा दिया कि केवल प्रक्रियात्मक दक्षता नहीं, संवाद, प्रतिनिधित्व और समावेशन भी ज़रूरी हैं।

वक्फ विधेयक सहयोगात्मक कानून निर्माण का अवसर हो सकता था। लेकिन यह एक राजनीतिक अस्त्र बन गया।
 



निष्कर्ष: अब ज़रूरत है एक दिशा बदलाव की
 

भारत की संसद से "मध्य मार्ग"—जहां देशहित पहले आता है—गायब हो रहा है। बजट सत्र 2025 प्रक्रियागत रूप से सफल जरूर रहा, लेकिन लोकतांत्रिक रूप से अधूरा रहा।

देश को अब तेज़ी से कानून नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण, समावेशी और संवेदनशील शासन प्रणाली की ज़रूरत है। जब तक ऐसा नहीं होता, भारत के लोकतंत्र में यह मिसिंग मिडल एक खतरनाक शून्य बना रहेगा।
 



🧭 जागरूक रहें। जुड़ाव बनाए रखें। लोकतंत्र सिर्फ देखने की नहीं, आवाज़ उठाने की प्रक्रिया है।

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