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लोकसभा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के सामने विषम जनसांख्यिकीय परिवर्तनों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों की विवेचना कीजिए। क्या भारत को समय-समय पर क्षेत्र निर्धारण (Delimitation) जारी रखना चाहिए या सीट आवंटन को स्थगित किया जाना चाहिए? संवैधानिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परीक्षण कीजिए।

19-04-2025

भूमिका:
 

भारतीय लोकतंत्र में लोकसभा सीटों का आवंटन अनुच्छेद 81 के तहत राज्यों की जनसंख्या के अनुपात में होता है। किंतु जनसंख्या वृद्धि की असमानता ने इस व्यवस्था को चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

 



असमान जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न असंतुलन:
 

  • उत्तर बनाम दक्षिण भारत:
    • उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश जैसी राज्यों में 1971-2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि क्रमशः 38.2%, 25%, 28% रही।
    • वहीं, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में यह वृद्धि केवल 20% और 15.5% थी।
       
  • प्रतिनिधित्व में असमानता:
    • गोवा (1.5 मिलियन) को 2 सीटें, जबकि दिल्ली (33.8 मिलियन) को केवल 7 सीटें
    • दक्षिण भारत को उनकी जनसंख्या नियंत्रण नीतियों के लिए राजनीतिक हानि

 



संविधानिक और विधायी प्रतिक्रियाएं:
 

  • 42वां संविधान संशोधन (1976): 2001 तक परिसीमन स्थगित किया गया।
  • 84वां संशोधन (2002): यह स्थगन 2026 तक बढ़ा।
  • अनुच्छेद 82 एवं परिसीमन अधिनियम 2002: प्रत्येक जनगणना के बाद सीटों का पुनर्निर्धारण अपेक्षित है।

 



आगे की दिशा:
 

  • संख्यात्मक से परे सोच: केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि क्षेत्रफल, प्रशासनिक दक्षता और HDI जैसे मानकों के आधार पर सीट आवंटन।
  • राज्यसभा की भूमिका सुदृढ़ करना: संघीय संरचना में संतुलन बनाए रखने हेतु।

 



निष्कर्ष:
 

2026 के बाद सीटों का पुनः निर्धारण संघीय संतुलन को बिगाड़ सकता है। लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और जनसांख्यिकी न्याय के बीच संतुलन आवश्यक है। सीटों की फ्रीजिंग असमान जनसंख्या वृद्धि के विरुद्ध संघीय एकता को बनाए रखने में सहायक हो सकती है।

 

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