I. राजसत्ता की अभिव्यक्ति:
- मंदिरों को प्रशासनिक केंद्र के रूप में प्रयुक्त किया गया।
- भूमि दान, व्यापारिक अनुबंध, कर संग्रह की जानकारी मंदिरों की दीवारों पर अंकित।
- राजाओं ने स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया — जैसे, "राजराजेश्वर" की उपाधि।
II. धार्मिक भक्ति और स्थापत्य:
- मंदिरों में न केवल पूजा स्थल, बल्कि सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र।
- नटराज, शिव, विष्णु और देवी की मूर्तियाँ – भक्ति आंदोलन के उदय को दिशा दी।
III. स्थापत्य में सम्राटों की भूमिका:
- राजराज चोल I – बृहदेश्वर मंदिर के माध्यम से शक्ति का प्रदर्शन।
- राजेंद्र चोल I – गंगैकोंडचोलपुरम मंदिर से उत्तर में विजय यात्रा का संकेत।
- मंदिर-निर्माण को शाही कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया।
IV. अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक संरक्षण:
- मंदिरों ने स्थानीय शिल्पकारों और कलाकारों को संरक्षण दिया।
- दान-पत्रिकाओं से पता चलता है कि मंदिरों ने कृषि, शिक्षा और संगीत को पोषित किया।
V. निष्कर्ष:
चोल स्थापत्य ने सत्ता और धर्म का एक ऐसा तानाबाना बुना जिसमें सम्राटों की महत्ता, समाज की आस्था और संस्कृति की स्थायित्व शक्ति — सब एक साथ समाहित थे।
