I. ऐतिहासिक विकास:
- वैदिक युग में सामगान के रूप में संगीत की जड़ें।
- संघम साहित्य में काव्य व राग का उल्लेख।
- भक्ति आंदोलन (7वीं-12वीं सदी) में आलवार व नायनार संतों ने धार्मिक काव्य और संगीत को जोड़ दिया।
- विजयनगर काल (14वीं-16वीं सदी) – संरक्षक राजाओं और मंदिरों में संगीत का उत्कर्ष।
II. कर्णाटक संगीत की त्रिमूर्ति:
- त्यागराज (1767-1847):
- रामभक्ति पर आधारित हजारों कृत्तियाँ।
- “Endaro Mahanubhavulu” जैसी महान रचनाएँ।
- मुत्तुस्वामी दीक्षितर (1775–1835):
- संस्कृत में रचनाएँ, राग-संगठन में नवाचार।
- देवी, गणपति, विष्णु को समर्पित रचनाएँ।
- श्याम शास्त्री (1762–1827):
- ताल जटिलता और भाव-प्रदर्शन में निपुण।
- देवी कामाक्षी की स्तुति पर केंद्रित रचनाएँ।
III. आधुनिक योगदान:
- एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी, सेम्मंगुड़ी श्रीनिवास अय्यर, टी. एन. कृष्णन आदि ने कर्णाटक संगीत को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई।
IV. निष्कर्ष:
कर्णाटक संगीत केवल कला नहीं, आध्यात्मिक चेतना का माध्यम है। इसकी त्रिमूर्ति ने इसे शास्त्र, भक्ति और सौंदर्य का संगम बनाकर विश्व मंच तक पहुँचाया।
-1745063980123.jpeg)